इंदिरा गांधी को रास नहीं आई थी अपने ही सांसद की फिल्म, इमर्जेंसी के बाद चुनाव में बना ये मुद्दा

Siasi Kisse: देश में आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई. उस वक्त चुनाव में एक मुद्दा जो काफी उछला था वो था एक फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’. हम इसी फिल्मी के ईर्द-गिर्द देश की सत्ता और राजस्थान से उसके कनेक्शन को ‘सियासी किस्से’ की सीरीज में बता रहे […]

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Siasi Kisse: देश में आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई. उस वक्त चुनाव में एक मुद्दा जो काफी उछला था वो था एक फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’. हम इसी फिल्मी के ईर्द-गिर्द देश की सत्ता और राजस्थान से उसके कनेक्शन को ‘सियासी किस्से’ की सीरीज में बता रहे हैं.

दरअसल इस फिल्म के निर्माता थे अमृत नाहटा जो बाड़मेर में कांग्रेस पार्टी के सांसद थे. पहले आपको ये बताते हैं कि अमृत नाहटा कौन थे? अमृत नाहटा जोधपुर के रहने वाले थे. ये वर्ष 1962 में कांग्रेस में शामिल हुए. इन्होंने अपना पहला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर 1967 में बाड़मेर सीट से लड़ा और जीतकर सांसद बने. वर्ष 1971 में नाहटा ने फिर बाजी मारी ली और दोबारा इसी सीट पर जीतकर सांसद बने.

अमृत ने 1971 में राजस्थान के कद्दावर नेता भैंरो सिंह शेखावत को हराया था. तब भैंरो सिंह जयपुर के किशनपोल सीट से विधायक थे और बाड़मेर लोकसभा सीट पर लड़े थे. कहते हैं नाहटा अपने पहले चुनाव में लच्छेदार भाषण से लोगों को दिल जीत लिए थे. उन्होंने कहा था कि यदि वे जीते तो रेगिस्तान में अंगूर उगाएंगे.

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ऐसे शुरू हुआ ‘किस्सा कुर्सी का’
कहते हैं नाहटा छात्र जीवन से ही क्रांतिकारी विचारधारा वाले थे. वे थे तो कांग्रेस में पर इंदिरा के खिलाफ बोल जाते थे. एक बार उन्होंने कहा था कि देश को इंदिरा गांधी के रूप में ऐसा पीएम मिला है, जिसका विश्वास नैतिकता में नहीं है. इनके लिए परिणाम ही सबकुछ है. वर्ष 1974 में अमृत नाहटा ने अभिनेता राज बब्बर को लेकर फिल्म बनाई ‘किस्सा कुर्सी का’. यहां तक तो ठीक था. फिल्म 1975 में रिलीज के लिए तैयार थी तभी इमर्जेंसी लग गई. बताया जाता है कि तब फिल्में भी सेंसर बोर्ड के अलावा सरकार भी देखती थी. सरकार की हां के बाद ही फिल्म रिलीज होती थी.

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सेंसर बोर्ड के पास पड़ी रही फिल्म
कहते हैं सेंसर बोर्ड में जाने के बाद फिल्म काफी समय तक पड़ी रही. माना जाता है कि फिल्म एक राजनैतिक व्यंग्य थी जिसमें मुख्य किरदार इंदिरा गांधी और संजय गांधी से मिलते-जुलते थे. फिल्म में नेता ने जिस चिन्ह पर चुनाव लड़ा वो था ‘जनता की कार’. उसी वक्त संजय गांधी का ड्रीम प्रोजेक्ट मारुति कार थी जिसे जनता की कार बताया गया था. नाहटा पर आरोप लगे कि उनकी फिल्म ऑटो मेन्युफैक्चरिंग प्रोजेक्ट का मखौल उड़ाने वाली और सरकार की नीतियों को बदनाम करने वाली है. कई आपत्तियों के साथ नाहटा से जवाब मांगा गया. उन्होंने जवाब दिए. कहा कि फिल्म महज कल्पना मात्र है. इसमें किसी भी राजनीतिक व्यक्ति या पार्टी से सीधा संबंध नहीं है. तर्को को नकार तब सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की अध्यक्षता में कमेटी बना दी गई.

नाहटा सुप्रीम कोर्ट गए
इधर नाहटा सुप्रीम कोर्ट चले गए. अदालत ने सरकार को फिल्म के प्रिंट सुरक्षित रखने के आदेश दिए. कहा जाता है कि सरकार ने सारे प्रिंट जब्त कर लिए और बाद में अदालत में ये तर्क दिया कि वे गायब हो गए. संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल पर आरोप लगे कि उन्होंने फिल्म के प्रिंट गुड़गांव स्थित मारुति के कारखाने में जलवा दिए. मामला दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में पहुंचा. संजय गांधी की जमानत सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी वहीं विद्याचरण शुक्ल को हाईकोर्ट ने मामले में बेदाग करार दे दिया. संजय को एक महीने के लिए तिहाड़ जेल जाना पड़ा.

इमर्जेंसी के बाद चुनाव हुए और फिल्म बनी मुद्दा
इधर इमर्जेंसी में आम चुनाव हुए और नाहटा की फिल्म मुद्दा बन गई. जनता पार्टी की सरकार बनी. इधर जनता पार्टी के टिकट से अमृत नाहटा ने पाली से चुनाव लड़ा और वे सांसद बने. सरकार में लाल कृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने. तब नाहटा ने अपनी फिल्म के प्रिंट का मुद्दा उठाया और मामले पर सीबीआई जांच बैठी.संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल पर मुकदमा दर्ज हुआ.

वक्त ने करवट ली और मोरारजी की चली गई सरकार
इधर 15 जुलाई 1979 को मोरार जी देसाई को इस्तीफा देना पड़ा. जिस कांग्रेस के विरोध में लोकदल, जनसंघ समेत विपक्ष ने मिलकर जनता पार्टी के बैनर तले सरकार बनाई थी वो गिर गई और उसी कांग्रेस के सहयोग से चौधरी चरण सिंह पीएम बने. बताया जाता है कि माहौल बदलते देख नाहटा ने चुप्पी साध ली. वर्ष 2001 में नाहटा का निधन हो गया.

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