जब झालावाड़ सीट से वसुंधरा राजे का नाम हुआ फाइनल, तब हाड़ौती बोली को लेकर थी चिंतित

गौरव द्विवेदी

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Siasi Kisse: राजस्थान की सियासत में महारानी कही जाने वाली वसुंधरा राजे का सियासी किस्सा भी दिलचस्प है. संघ-भाजपा से इतर पूर्व मुख्यमंत्री का पार्टी में अपना धड़ा है. जिसके बूते संगठन और सत्ता में वसुंधरा ने हर बार खुद को साबित किया. हर कदम पर चुनौती को पार करते राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री रहने के बाद साल 2013 में फिर से सूबे की कमान संभाली.

राजस्थान की पूर्व सीएम का सियासी सफर जितना उपलब्धियों भरा रहा, उतना ही आगाज भी चुनौतीपूर्ण रहा. ग्वालियर के सिंधिया राजघराने से ताल्लुक रखने वाली वसुंधरा राजे का जन्म मुंबई में हुआ. क्षेत्र की सीमाओं को लांघते हुए उन्होंने राजस्थान के झालावाड़ संसदीय सीट से 90 के दशक में चुनाव भी लड़ा. जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

इसी के बाद 8 दिसंबर 2003 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर उन्होंने नया इतिहास रच दिया. जानकारों की मानें तो वसुंधरा राजे को यह जीत आसानी से नहीं मिली. जिसके बाद साल 2013 में फिर से एक बार सत्ता में काबिज होने का मौका मिला. उन्होंने साल 1989 में राजस्थान की झालावाड़ संसदीय सीट पर 1 लाख 46 हजार वोटों के अंतर से चुनाव जीता. उस समय उन्हें 50 फीसदी से ज्यादा मत हासिल हुए. इसके बाद 1991, 1996 और 1998 में लोकसभा सांसद रही.

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वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई की किताब ‘सिंधिया राजघराना: सत्ता, राजनीति और षंड़यंत्रों की महागाथा’ के मुताबिक जब 1989 में झालावाड़ संसदीय सीट के लिए उनका नाम चर्चा में था. तो उन्हें एकबारगी के लिए तो भरोसा ही नहीं था. उनके सामने परेशानी यह भी थी कि वह स्थानीय हाड़ौती बोली से बिल्कुल भी परिचित नहीं थी. उन्हें लगता था कि हाड़ौती बोली से वह परिचित नहीं हैं और यह उनकी राह में आड़े आ सकती है. बावजूद इसके झालावाड़ संसदीय सीट से उन्होंने जबरदस्त सफलता हासिल की. बाद में उन्होंने अपनी जीत का यही सिलसिला राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने पर भी जारी रखा और झालावाड़ की झालरापाटन विधानसभा सीट से लगातार जीत हासिल की.

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विजयाराजे सिंधिया के करीबी शेखावत ने बनाया राज्य बोर्ड में सदस्य
वसुंधरा राजे का राजनीति से सीधा संपर्क 1978 में तब हुआ, जब भैरोंसिंह शेखावत की अगुवाई में जनता पार्टी ने राजस्थान में सरकार बनाई. शेखावत खुद विजया राजे के करीबी सहयोगी रहे थे. उन्होंने वसुंधरा को राजस्थान सामाजिक कल्याण बोर्ड में सदस्य बनाया. साल 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद जब राजमाता संस्थापक सदस्य बनी तो 4 साल के भीतर ही वसुंधरा को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य बनाया गया. वहीं, 1998 में वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो राजे को विदेश राज्यमंत्री बनाया गया. वसुंधरा राजे को अक्टूबर 1999 में फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया. जब उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत बने तो वसुंधरा राजे को राजस्थान में बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया.

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ससुराल में चुनाव लड़ा तो मिला महारानी का खिताब
वसुंधरा राजे को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भिंड से भाजपा के टिकट पर खड़ा किया गया था. लेकिन 80 के दशक के दौरान इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में उपजी सहानुभूति की लहर थी. जिसके चलते वे कांग्रेस के उदयभान सिंह से हार गईं. हालांकि इस हार का उनकी राजनीति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. इसके बाद उन्हें राजस्थान में भाजपा युवा मोर्चा का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया. संगठन में अहम जिम्मदेारी मिलने के बाद 1985 में वे धौलपुर विधानसभा से चुनाव जीत गईं. वह अपने ससुराल से विधायक बनी और यहीं उन्हें धौलपुर की महारानी का खिताब भी दिया गया था. खास बात यह है कि चुनाव में उन्होंने अपने ससुराल वालों से कोई समर्थन नहीं मांगा. बिना ससुराल पक्ष की मदद के ही कांग्रेस के दिग्गज नेता बनवारी लाल को 23 हजार से भी अधिक मतों से हराया. उनके सियासी इतिहास को देखें तो वसुंधरा ने कई तरह को समस्याओं को पार करते हुए राजनीति में परचम लहराया.

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