Pokhran-2 : इस गांव की कमजोरी ने ही दिलाई सबसे बड़ी पहचान, हिल गई थी दुनिया
pokhran atom bomb test 1998: जैसलमेर के पोखरण (Pokhran-2) में 11 मई 1998 को हुए परमाणु परीक्षण को आज 25 साल पूरे हो चुके हैं. इस मौके पर राजस्थान तक बता रहा है वो वजह जिसके कारण पोखरण के खेतोलाई गांव को इस ऐतिहासिक काम के लिए चुना गया. जो गांव पानी की कमी से जूझ […]
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pokhran atom bomb test 1998: जैसलमेर के पोखरण (Pokhran-2) में 11 मई 1998 को हुए परमाणु परीक्षण को आज 25 साल पूरे हो चुके हैं. इस मौके पर राजस्थान तक बता रहा है वो वजह जिसके कारण पोखरण के खेतोलाई गांव को इस ऐतिहासिक काम के लिए चुना गया. जो गांव पानी की कमी से जूझ रहा था. जिसे जैसलमेर में भी बहुत कम लोग जानते थे वो परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया के नक्शे पर छा गया. कहते हैं भारत ने अमेरिका को चकमा देकर दूसरा परमाणु परीक्षण किया था. इसके बाद खेतोलाई गांव देश और दुनिया की जुबान पर आ गया था.
खेतोलाई गांव की एक खास कमजोरी ही उसकी ये पहचान बन गई. जिस गांव के लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे थे वहीं पानी की कमी परमाणु परीक्षण की वजह बन गई.
गांव में 30 किमी दूर से आता है पानी
11 मई 1998 को पोकरण परमाणु परीक्षणों 2 की श्रृंखला आयोजित की गई थी. खेतोलई गांव के भू-गर्भ में हजारों मीटर नीचे तक पानी न होने की खूबी के कारण वैज्ञानिकों ने परमाणु परीक्षणों के लिए इस स्थान का चयन किया था. खेतोलई में पानी 30 किमी दूर लाठी गांव से पाइप लाइन के जरिए आता है.
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भू-गर्भ में हजारों मीटर तक पानी का नामोनिशान नहीं
असल में राजस्थान में 33 हजार गांव हैं. मगर जैसलमेर के खेतोलई गांव की भौगोलिक संरचना की खूबियों के कारण ये अनजान सा छोटा गांव परमाणु वैज्ञानिकों का पसंदीदा क्षेत्र बन गया. यहां भूभर्ग में हजारों मीटर तक पानी का नामोनिशान नहीं है. परमाणु वैज्ञानिक भी यही चाहते थे, क्योंकि परीक्षणों के बाद यदि वहां पानी का बहाव होता तो वहां रेडियेशन का खतरा संभावित था.
ऐसे हुआ इस बात का खुलासा
ये दिलचस्प खुलासा करते हुए वरिष्ठ भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया ने बताया कि परमाणु वैज्ञानिकों ने पोकरण 2 श्रृंखला के लिये जिस क्षेत्र का चुनाव किया वहां लाखों वर्ष पूर्व ज्वालामुखी फटने से निकले लावा के कारण वोलकेनिक चट्टानों का निर्माण हुआ था. रायोलाईट वाली ये वोलकेनिक चट्टाने पिघले हुए लावा के बारिक कणों से बनती हैं. चट्टान बनने की प्रक्रिया में इन कणों के मध्य किसी तरह का खाली स्थान नहीं रहता. इस कारण ये चट्टानें न तो पानी का अवशोषण करती हैं और न ही पानी के बहाव में सहायक सिद्ध होती हैं.
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ये हैं ट्रॉई रॉक्स चट्टानें
उन्होंने बताया कि एक तरह से ये चट्टानें ट्राई रॉक्स होती हैं. इसी गुण के कारण इन चट्टानों की परमाणु विस्फोट परीक्षण के लिये उचित समझा गया, ताकि विस्फोट के बाद निकलने वाले रेडिएशन की पहुंच भू-जल तक न हो.
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जैसलमेर के इन गांवों में नहीं है पानी
वैज्ञानिक डॉ इणखिया ने बताया कि जैसलमेर के पोकरण क्षेत्र के कई गांव जैसे खेतोलई, फलसूंड, भणियाणा, दांतल, उजला, नानणियाई, थाट, खेतोलई, नचातला, क्षेत्र में वोलकेनिक चट्टानों का जमाव है. यहां पानी नहीं के बराबर मिलता है. कई स्थानों पर बहुत अधिक गहराई पर भूजल मिलता है, लेकिन वो पानी बहुत खारा होता है. वे कहते हैं कि भणियाणा से पोकरण तक का करीब 50 स्क्वायर किमी का क्षेत्र ऐसा ही है. खेतोलई क्षेत्र में 2000 मीटर से भी अधिक गहराई पर पानी का नामोनिशान नहीं है.
पहला परीक्षण भी जैसलमेर के लोहारकी गांव में हुआ
जैसलमेर जिले के लोहारकी गांव में 18 मई 1974 को भारत का प्रथम परमाणु परीक्षण किया गया था. ये क्षेत्र भी ट्राई रॉक्स क्षेत्र में आता है. वाकई खेतोलई और लोहारकी को पानी न होने का वरदान पूरे विश्व में एक ऐसी पहचान दिला गया जो कभी भी मिट नहीं सकेगा.
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