सियासी किस्सा: कभी चूरू में चाचा-भतीजे की जोड़ी ने BJP में खिलाया कमल, अब दोनों के बीच क्यों फूटा ज्वालामुखी?

गौरव द्विवेदी

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चूरू (Churu) के मौसम की खास बात यह है कि जून में पारा 50 डिग्री के पार हो जाता है, जबकि दिसंबर-जनवरी आते-आते माइनस तक पहुंच जाता है. मौसम की तरह इस बार शेखावाटी में सियासत ने भी पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. बीजेपी (BJP) के दिग्गज नेताओं में शुमार राजेंद्र राठौड़ (Rajendra Rathore) साल 2023 से पहले तक कभी भी चुनाव नहीं हारे. लेकिन उनकी हार का रिकॉर्ड भी इस बार टूट गया. इसी के साथ टूट गई सियासत में राम-लक्ष्मण कहे जाने वाले दो नेताओं की जोड़ी भी. इस स्टोरी में बात उसी सियासी किस्से की....

लगातार 7 बार विधायक रहने वाले राजेंद्र राठौड़ ने 6 चुनाव चूरू विधानसभा सीट से लड़ा तो वहीं, 2008 का चुनाव उन्होंने तारानगर सीट से जीता. सीट बदला, लेकिन उनकी जीत का सिलसिला नहीं. वह हमेशा विधानसभा पहुंचने में कायमाब रहे. लेकिन साल 2023 में एक बार फिर वह तारानगर से चुनाव तो लड़े तो कांग्रेस प्रत्याशी नरेंद्र बुड़ानिया से 10 हजार 345 वोटों से हार गए. बीजेपी को बहुमत के बीच मुख्यमंत्री दावेदारों में से एक कहे जाने वाले राठौड़ की हार के बाद शेखावाटी बेल्ट में हलचल तेज हो गई.

राठौड़ ने अपनी ही पार्टी के नेताओं को जयचंद करार दिया. उन्होंने कहा कि मुंह में राम, बगल में छुरी लेकर भी कई लोग सत्ता के नजदीक आने की कोशिश कर रहे हैं. उनके चेहरे का नकाब जल्द ही उतरने वाला है. इस दौरान उन्होंने भले ही किसी नेता का नाम नहीं लिया, लेकिन इसे स्थानीय सांसद राहुल कस्वां से जोड़कर देखा जाने लगे. 

जब आम चुनाव के लिए चूरू से बीजेपी का टिकट का ऐलान हुआ तो राहुल कस्वां का पत्ता साफ कर पैरा ऑलंपिक देवेंद्र झाझरिया को मैदान में उतारा तो शक्ति प्रदर्शन के दौरान राहुल कस्वां ने भी राठौड़ के बयान पर पलटवार कर कहा- ‘‘जयचंदों के बीच में रहने वाले जयचंद ही जयचंदों की बात करते हैं. क्या अब वो एक व्यक्ति (राजेंद्र राठौड़) मेरे भविष्य का फैसला करेगा, चूरू का बच्चा-बच्चा मेरे कल का फैसला करेगा.  ये लड़ाई अब एक आदमी के अहंकार के खिलाफ है.’’

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चुनाव में 'जयचंद' की एंट्री!

बरहाल 'जयचंद' की एंट्री के साथ ही चूरू का सियासी घमासान अब तेज हो गया है. लेकिन सवाल यही है कि आखिर कस्वां परिवार और राजेंद्र राठौड़ के बीच दूरियां कैसे बढ़ गई? खास बात यह भी है कि राहुल कस्वां के पिता राम सिंह कस्वां और राजेंद्र राठौड़ को राम-लक्ष्मण की जोड़ी कहा जाता था. सियासत में जोड़ी भी ऐसी कि दोनों ने अपना राजनैतिक करियर 90 के ही दशक में शुरू किया. दोनों नेताओं के बीच तालमेल ऐसा था कि कस्वां को सादुलपुर में राजपूत वोट मिलने में राजेंद्र राठौड़ की बड़ी भूमिका होती थी. जबकि चूरू में कस्वां के सहारे राठौड़ जाट वोट हासिल करने में कामयाब हुए. लेकिन साल 2024 तक आते-आते अब सियासी समीकरण ऐसे ही कि कांग्रेस प्रत्याशी राहुल कस्वां को हराने के लिए उनके 'काका' राजेंद्र राठौड़ ही जोर लगाए हुए हैं.  

लेकिन ना तो बात 2023 के विधानसभा चुनाव की और ना ही 2024 के लोकसभा चुनाव की, बल्कि 12 साल पहले हुए उस चुनाव को समझने की जरूरत है जब राम-लक्ष्मण की जोड़ी में दरार पड़ने की शुरुआत हो गई थी. 

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कस्वां-राठौड़ के सहारे वसुंधरा राजे ने इस क्षेत्र में बनाई पकड़ 

कहानी की शुरूआत साल 1990 के विधानसभा चुनाव से होती है. जब राजेंद्र राठौड़ चूरू से जनता दल के उम्मीदवार के तौर पर और रामसिंह कस्वां सार्दुलपुर से निर्दलीय के तौर पर चुनाव मैदान में लड़े. इस चुनाव में राजेंद्र राठौड़ तो जीतने में कामयाब रहे, लेकिन रामसिंह कस्वां चुनाव नहीं जीत पाए. कहा जाता है कि इस चुनाव में रामसिंह कस्वां ने राजेंद्र राठौड़ की चूरू में और राजेंद्र राठौड़ ने रामसिंह कस्वां की सार्दुलपुर में मदद की थी.  इसी वजह से उन्हें भाजपा ने 1991 के लोकसभा चुनाव में चूरू संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने का मौका दिया. कस्वां ने इस चुनाव में कांग्रेस के जयसिंह राठौड़ को महज 168 वोटों से हराया.  इसके बाद 1999, 2004 और 2009 में भी रामसिंह कस्वां यहां से सांसद चुने गए. 2014 और 2019 में रामसिंह कस्वां के बेटे राहुल कस्वां यहां से सांसद चुने गए. इस तरह पिछले 25 साल से चूरू संसदीय क्षेत्र पर कस्वां परिवार का एकछत्र राज है. 

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साल था 2013. जब विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव में उतरी, लेकिन बहुमत मिला बीजेपी को और वसुंधरा राजे ने सीएम पद की शपथ ली. इसी चुनाव में सादुलपुर सीट से बीजेपी चुनाव हार गई थी. बीएसपी के मनोज कुमार 59 हजार 624 वोट हासिल कर जीत दर्ज की और बीजेपी प्रत्याशी प्रतिद्वंदी को 4826 मतों के अंतर से हराया. कुल 54 हजार 798 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रही राहुल कस्वां की मां कमला कस्वां. जबकि तीसरे स्थान पर कांग्रेस की कृष्णा पूनिया रही.  

दिलचस्प बात है कि पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की शेखावाटी बेल्ट में राजनीति मजबूत होने के पीछे भी इन दोनों नेताओं की अहम भूमिका मानी जाती रही. इंडिया टुडे के विशेष संवाददाता आनंद चौधरी के मुताबिक वसुंधरा राजे के लिए ये दोनों नेता ही बेहद खास थे. राजे की सरकार में राजेंद्र राठौड़ हमेशा नंबर 2 रहे. जबकि राम सिंह कस्वां से भी उनकी नजदीकी वैसी ही रही. 

जब राजेंद्र राठौड़ जीते, लेकिन राहुल कस्वां की मां हार गई चुनाव

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इस चुनाव के बाद ही अंदरखाने राजेंद्र राठौड़ और रामसिंह कस्वां के बीच पहली बार सियासी दूरियां नजर आने लगी. आरोप लगे कि इस चुनाव में राजपूत समाज से आने वाले प्रत्याशी मनोज न्यांगली को राजेंद्र राठौड़ का साथ मिला. जिसके बाद पहली बार रामसिंह कस्वां के परिवार को यह अहसास हुआ कि राजेंद्र राठौड़ ने इस बार उन्हें चुनाव जिताने का प्रयास नहीं किया. दूसरी ओर, इसी चुनाव में कस्वां परिवार ने चूरू में राजेंद्र राठौड़ को जिताने का दावा किया.  

इसी के बाद दोनों के बीच मनमुटाव भी शुरू हो गया. दूरियां तब और भी बढ़ गई जब साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कस्वां परिवार से किसी को टिकट नहीं मिला. अगले ही साल 2019 में राहुल कस्वां सांसदी का चुनाव लड़े और जीते भी. हालांकि कयास लगे थे कि राठौड़ इस चुनाव में कस्वां को टिकट मिलने के पक्ष में नहीं थे.

2023 का चुनाव और भीतरघात की बात

इसी के बाद साल दर साल दोनों के बीच खाईयां बढ़ने की बात कही जाने लगी. विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद सोशल मीडिया पर एक ऑडियो रिकॉर्डिंग वायरल हुई थी. जिसमें राठौड़ के दो समर्थक आपस में बात कर रहे थे और वे बीजेपी सांसद राहुल कस्वां पर हार का ठीकरा फोड़ रहे थे. उस ऑडियो रिकॉर्डिंग में कहा जा रहा था कि राहुल कस्वां ने राठौड़ से भीतरघात किया है, जिसकी वजह से राठौड़ को हार का सामना करना पड़ा.  

 

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