टोंक: शहर हुआ 1077 साल पुराना, आज मना रहा अपना बर्थ डे, जानिए कैसे पड़ा नाम

मनोज तिवारी

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Tonk foundation day: आज़ादी से पहले राजपूताना की एक मात्र नवाबी रियासत रहा टोंक शहर आज 1077 साल का हो चला है. कभी ऊंची पहाड़ी चोटी जिसे रसिया की छतरी के नाम से पहचाना जाता है. इस शहर की आधार शिला दिल्ली के राजा तुंगपाल के भतीजे ख्वाजा राजा रामसिंह द्वारा 946 ईस्वी में उस समय रखी गयी थी, जब वे अपने चाचा से रूठकर यहां आ गए थे.

श्यामल दास द्वारा रचित वीर विनोद में अंकित तिथि के अनुसार 24 दिसंबर को राजा राम सिंह ने अपना पड़ाव यहां डाला था और फिर कुछ वर्षों तक वे यहीं पड़ाव डाले रहे. कहा जाता है कि सबसे पहले इस स्थान को तीखी चोटी वाली पहाड़ी के चलते टूंक के नाम से पुकारा गया जो बाद में टूंकड़ा के नाम से पहचाना जाने लगा. इसके बाद कालांतर में टूंकड़ा से अपभ्रंश होकर ही टोंक का नाम अस्तित्व में आया.

आखिर… राम सिंह नें यहीं क्यों डाला था पड़ाव
कहा जाता है कि जब अपने चाचा से नाराज होकर अपने घुड़सवार साथियों के साथ राम सिंह यहां आए तो पहाड़ों के बीच में बनी घाटी व पहाड़ों के पीछे बहने वाली बनास नदी अपने पड़ाव के लिए सबसे अच्छी जगह लगी. लिहाजा उन्होंने यहीं अपना स्थायी पड़ाव डाल दिया था. इतिहास के अनुसार राम सिंह अपने चाचा से सुलह होने तक इसी स्थान पर अपना डेरा डाले रहे.

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रामसिंह के बाद सोलंकियों ने संभाली थी यहां की कमान
कहा जाता है कि जब तक राजा राम सिंह यहां रहे उन्हें टोडारायसिंह के सोलंकी राजपूतों का बराबर सहयोग मिलता रहा लिहाजा वे दिल्ली लौटते समय यहां की बागडौर सोलंकियों को सोंप गये थे.

सोलंकियों के राव जोगा ने बनवाई थी पहली ईमारत
ख्वाजा राजा राम सिंह के दिल्ली लौट जाने के बाद राव जोगा ने यहां की कमान संभाली व यहां पहाड़ की तलहटी में सिर्फ पत्थरों से चुनवाया हुआ एक तीन मंजिला भवन भी बनवाया जिले आज भी राव जोगा के महल के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है आसपास के क्षैत्रों को अपने अधीन लेने के लिये राव जोगा ने 800 राजपूत सरदारों को घोड़े बांटे थे. राव जोगा ने ही बाद में उस समय आबाद हो चूकी बस्ती के चारों ओर सुरक्षा की दृष्टि से पक्का परकोटा बनवाया व उसमें चार दरवाजों का निर्माण कर वाया जो आज भी मेहंदवास गेट, बमोर गेट, निवाई दरवाजा व मालपुरा दरवाजे के नाम से जाने जाते हैं. मालपुरा दरवाजा आज पूरी तरह खत्म हो गया है, जबकि शेष तीनों दरवाजे आज भी अपनी कहानी बयान करते नजर आते हैं.

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टोंक की सरज़मीं से होकर गुजरते रहे कई कारवां
इतिहास के अनुसार बाद में अजयमेरू के सम्राज पृथ्वीराज के अधीन रहा यह ईलाका सरसब्ज़ होने के चलते ही हमेशा दिल्ली से सवाई माधोपुर के रणथंभौर को फतेह के ईरादे से निकले सल्तनत काल से लेकर मुग़ल काल तक की सेनाओं का पड़ाव स्थल बना रहा. ऐतिहासिक साक्ष्यों की माने ने सल्तनत काल के शासक अल्तमश व उसकि बेटी व हिंदुस्तान की प्रथम महिला साम्राज्ञी रज़िया सुल्तान भी यहां से होकर निकले थे जिनकी कुछ निशानियां आज भी यहां इतिहासकारों में बहस का विषय बनीं हुई हैं.

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आजादी से पहले नवाबी रियासत रहा था टोंक
सम्राट पृथ्वीराज के बाद टोंक होल्करों के अधीन आ गया था.यह होल्कर वंश की अहिल्या बाई व जसवंतराव होल्कर के अधीन रहा. इसके बाद टोंक के इतिहास ने एकदम करवट ली ओर 1817में हुई अंग्रेजों से संधि के बाद अफग़ानी मूल के पठान अमीरौद्दोला को पहला नवाब घोषित कर दिया गया. खास बात यह कि अंग्रेजों नें अमीरौद्दोला का ताकतवर नहीं होने देने के लिये टोंक व पांच अन्य परगनों को मिलाकर एक रियासत बनायी थी. ये परगने थे निम्बाहेड़ा, सिरोंज, छबड़ा, पिड़ावा व अलीगढ़.1817 में अस्तित्व में आयी नवाबी रियासत आज़ादी के समय तक क़ायम रही और यहां 6 नवाबों ने शासन किया. इनमें से नवाब मोहम्मद इब्राहीम अली ख़ान खलील वो नवाब रहे जिन्होंने क्वीन विक्टोरिया के बाद सर्वाधिक 66 वर्ष तक शासन किया.

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