अलग-अलग विधानसभाओं से सदन पहुंचने वाले भैंरो सिंह शेखावत को लोग कहते थे बाबोसा

राजस्थान तक

20 Feb 2023 (अपडेटेड: Feb 20 2023 1:25 PM)

Siasi Kisse: राजस्थान की सियासत की बात हो और भैंरो सिंह शेखावत का नाम न आए ऐसा भला कैसे हो सकता है. रोबिले अंदाज वाले भैंरो सिंह शेखावत पुलिस की नौकरी में खुश थे. अचानक कुछ बात हुई और नौकरी छोड़ खेती करने लग गए. खेती कर रहे भैंरो सिंह ने सपने में भी नहीं […]

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Siasi Kisse: राजस्थान की सियासत की बात हो और भैंरो सिंह शेखावत का नाम न आए ऐसा भला कैसे हो सकता है. रोबिले अंदाज वाले भैंरो सिंह शेखावत पुलिस की नौकरी में खुश थे. अचानक कुछ बात हुई और नौकरी छोड़ खेती करने लग गए. खेती कर रहे भैंरो सिंह ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के उपराष्ट्रपति बनेंगे.

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वक्त ने ऐसी करवट ली कि भैंरो सिंह को सीएम बनने का मौका मिल गया वो भी बिना विधायकी का चुनाव लड़े. हालांकि वे प्रदेश के एक मात्र ऐसे नेता माने जाते हैं जिन्होंने 8 अलग-अलग विधानसभाओं में चुनाव लड़कर प्रदेश में अपनी स्वीकार्यता को दिखाया था. कहते हैं बाबोसा के राजनीति में भले ही विरोधी थे पर असल जिंदगी में उनके शत्रु नहीं थे. उनमें दुश्मनों को भी दोस्त बना लेने की कला थी.

बाबोसा ऐसे बने सीएम
दरअसल बात 1977 की है. देश में आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए और कांग्रेस हार गई. देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी वाली सरकार बनी. तब मोरार जी ने कहा था कि कांग्रेस शासित राज्य सरकारें भी शासन का नैतिक अधिकार खो चुकी हैं. ऐसे में राज्यों में चुनाव हुए जिसमें अधिकांश में कांग्रेस की हार हुई. राजस्थान में भी 200 विधानसभा सीटों में से 152 पर जनता पार्टी ने जीत दर्ज की. तब बाबोसा राज्यसभा के सांसद थे.

तीन दिग्गजों में से सीएम चुनना हुआ मुश्किल
विपक्षियों का सामूहिक दल जनता पार्टी में उस वक्त तीन बड़े दिग्गज राजस्थान में थे. तीनों अलग-अलग धड़े से थे. यानी सीएम के पहले दावेदार भैंरोसिंह शेखावत जनता पार्टी के जनसंघ धड़े के नेता थे. मास्टर आदित्येंद्र कांग्रेस ओ के धड़े से और चौधरी चरण सिंह गुट से दौलत राम सारण लोकदल के नेता था. बताया जाता है कि तब सारण ने चौधरी चरण सिंह से सलाह की और भैंरो सिंह पर मुहर लगा दी. बाबोसा को 110 वोट मिले और वे जीत गए.

इस शर्त के चलते चौधरी ने जनसंघ का साथ दिया
कहते हैं विधानसभा चुनाव के दौरान चौधरी वाले लोकदल धड़े और जनसंघ धड़े के बीच एक समझौता हुआ था. कहा जाता है कि ये गुप्त समझौता था जिसका समझौते में शामिल लोगों ने मान भी रखा. तब राज्य बांट लिए गए. तय हुआ कि राज्य में जनता पार्टी की सरकार बनी तो यूपी, बिहार और हरियाणा में जनसंघ धड़ा लोकदल के सीएम उम्मीदवार का समर्थन करेगा. बदले में लोकदल धड़ा राजस्थान, एमपी और हिमाचल में जनसंघ धड़े के उम्मीदवार का सपोर्ट करेगा. हुआ भी वही. राजस्थान, एमपी और हिमाचल में जनसंघ धड़े से सीएम बने और यूपी, बिहार व हरियाणा से लोकदल धड़े के सीएम की ताजपोशी हुई.

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धर्मसंकट में पड़ गए मधु लिमये
इधर मधु लिमये तब शहर में थे. मास्टर के सीएम न बन पाने के कारण उन्हें इस बात की चिंता था कि वे इसे किस रूप में लेंगे. वे भैरों सिंह के जीतने पर खुशी भी नहीं जाहिर कर पा रहे थे. इधर बाबोसा उनकी इस परेशानी को भांप गए. बाबोसा की तरफ लिमये ने जैसे ही देखा वे सीधे मास्टर के पास जा पहुंचे और उनके पैर छू लिए. मास्टर भी उनसे राजी खुशी मिले और हाथ उठाकर इस जीत का इस्तकबाल कर दिया. लिमये के सामने आया ये संकट भी टल गया. मुख्यमंत्री बनने के बाद कोटा की छबड़ा सीट से चुनाव लड़े और जीते.

आडवाणी के ऑफर पर भैंरो सिंह ने लड़ा था पहला चुनाव
कहते हैं भैंरो सिंह ने पारिवारिक कारणों से पुलिस की नौकरी छोड़ खेती करना शुरू कर दिया. इधर 10 भाई-बहनों में सबसे छोटे बिशन सिंह पढ़ाई के दौरान संघ से जुड़े. 1951 में वे स्कूल टीचर हो गए. इसी दौरान के उनके पुराने परिचित लाल कृष्ण आडवाणी उनके घर आए. तब भारत-पाक बंटवारे के बाद आडवाणी भारत में जनसंघ का काम देख रहे थे और जयपुर में रहते थे. आडवाणी ने बिशन सिंह को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया. तब बिशन सिंह ने ये कहकर ठुकरा दिया कि नौकरी नई है लड़ नहीं पाएंगे. इसके बाद उन्होंने अपने भाई भैंरो के लिए कहा. तब भैंरो सिंह खेती-बड़ी में मशगूल थे.

वे चुनाव के लिए तैयार हो गए और पत्नी से 10 रुपए लेकर चुनाव लड़ गए और जीत भी गए. तब 1952 में जागीरदार कांग्रेस का विरोध कर रहे थे. इसी माहौल में भैंरो सिंह ने बाजी मार ली. कहते हैं तब बाबोसा ने ऊंट पर बैठकर दाता रामगढ़ में प्रचार किया था. फिर ऊंट ने करवट बदली और बाबोसा की जिंदगी बदल गई.

लगातर 3 बार चुनाव लड़े और हारे तो विपक्षी के घर जाकर
1952 में पहला चुनाव जीतने के बाद भैंरो सिंह शेखावत बैक टू बैक तीन चुनाव जीते. बाबोसा की खास बात ये थी कि हर बार वे अपनी सीट बदलकर दूसरे सीट से लड़ जाते थे. 1957 में वो सीकर की श्रीमाधवपुर, 1962 और 1967 में जयपुर की किशनपोल सीट और 1972 में वह जयपुर की गांधी नगर सीट से चुनाव लड़े. 1972 का चुनाव वे हार गए. कहा जाता है कि वे ये चुनाव हारे नहीं बल्कि इंदिरा ने तब लोकतंत्र को हरा दिया था. आपातकाल में जेल गए और लौटकर आए तो जनता पार्टी की सरकार में सीएम के पद पर ताजपोशी हुई.

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