Siasi Kisse: राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर का सियासी सफर आसान नहीं रहा. चाहे वह पहली बार सीएम बनने का वाकया हो या पद पर बनने रहने की मशक्कत. हर बार ही उन्हें राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा. यह चुनौती विपक्ष से कही ज्यादा उन्हें अपने कुनबे के लोगों से ही मिली.
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उनका सफर भीलवाड़ा नगर पालिका के चेयरमैन से शुरू हुआ था, जो सिविल लाइंस की मुख्यमंत्री कुर्सी के बाद असम के राज्यपाल तक रहा. इसके अलावा वह साल 1964 में लोकसभा के उपचुनाव में सांसद बने और 1967 में जिले की मांडल विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनने के साथ ही सुखाड़िया मंत्रिमंडल में शामिल हो गए. कांग्रेस से 3 बार विधायक माथुर को पहली बार 14 जुलाई 1981 को सीएम की गद्दी मिली, लेकिन उन्हें 23 फरवरी 1985 को आधी रात को इस्तीफा देना पड़ा.
इसके बाद वह फिर से 20 जनवरी 1988 से 4 दिसंबर 1989 तक मुख्यमंत्री रहे. उनके इस कार्यकाल के दौरान नवंबर 1989 के अंत में लोकसभा चुनाव हुए. बोफोर्स सौदे में घोटाले के विरोध में वीपी सिंह राजीव सरकार से बाहर आ गए थे. देशभर में पनपा यह विरोध राजस्थान में भी कम नहीं था. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राजस्थान की सभी 25 सीटों पर हार गई और नैतिक तौर पर जिम्मेदारी लेनी पड़ी माथुर को. कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन के चलते माथुर ने 4 दिसंबर 1989 को अपना इस्तीफा दे दिया.
ऐसे में 2 बार सीएम रहने के बाद भी वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. साल 1998 में फिर से एक बार कांग्रेस में सीएम पद के दावेदार के तौर पर माथुर का नाम सामने आया. प्रदेश की 150 से भी ज्यादा सीटों पर जीत हासिल कर सत्ता में आई कांग्रेस में एक नाम और चल था, वह था तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक गहलोत का. यह किस्सा है गहलोत की ताजपोशी और माथुर का…
सिंधिया राजघराने से माथुर के परिवार के थे पुराने संबंध
माथुर का जन्म मध्यप्रदेश के गुना में हुआ, लेकिन उनका नाम राजस्थान के कद्दावर नेता के तौर पर ही उभरा. शिवचरण माथुर के पिता गुना में जमींदार थे और ग्वालियर के सिंधिया राजघराने से माधवराव सिंधिया ताल्लुक रखते थे. जिसकी वजह से माथुर और सिंधिया दोनों ही अच्छे दोस्त थे. इसी के बाद एक ऐसा मौका आया जब माथुर को अपने दोस्त सिंधिया की सबसे ज्यादा जरूरत थी और तभी माथुर ने भी सिंधिया की एक बार बात मानने से इनकार कर दिया था. जिसके लिए सिंधिया ने माथुर को मनाने की कोशिश भी बहुत की, बावजूद इसके यह मुमकिन नहीं हो सका.
यह वाकया है साल 1998 का, जब प्रदेशाध्यक्ष गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस को 156 सीटें मिली. उस दौरान माधराव सिंधिया राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी भी थे. तब परसराम मदेरणा के साथ माथुर का नाम भी सीएम की होड़ में माना जा रहा था. इस बीच राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सिंधिया को राजस्थान भेजा.
सिंधिया पर जिम्मेदारी थी विधायक दल का नेता चुनने की. जिसके बाद नाम तय हुआ अशोक गहलोत का. गहलोत ने 1 दिसंबर 1998 को पहली बार सीएम पद की शपथ ली. लेकिन जब वह सुबह शपथ लेने वाले थे, तभी सुबह 11 बजे शिवचरण माथुर को कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और उनके दोस्त माधवराव सिंधिया ने फोन किया. सिंधिया ने माथुर को उपमुख्यमंत्री पद का ऑफर किया. लेकिन माथुर ने अपने दोस्त की बात को मानने से इनकार कर दिया.
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सीएम पद के साथ-साथ छीन गया विधानसभा अध्यक्ष का पद
अब जब सीएम पद के लिए गहलोत का नाम फाइनल हो गया तो शपथग्रहण समारोह के बाद कांग्रेस के सामने मुश्किलें भी कम नहीं थी. गहलोत को पहली बार सीएम बनाने वाली पार्टी में असंतुलन भी बिगड़ने की आशंका थी. क्योंकि शिवचरण माथुर राजस्थान के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे. ऐसे में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने पर दिग्गज नेता माथुर को भी पद देना जरूरी था. तब दिल्ली में एक नई सुगबुगाहट हुई, वह चर्चा थी विधानसभा अध्यक्ष के पद को लेकर.
फैसला यह लिया गया कि शिवचरण माथुर को राजस्थान विधानसभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा. दूसरी ओर, प्रदेश के कद्दावर जाट नेता परसराम मदेरणा के हाथ सूबे की कमान देखने का इंतजार कर रहे उनके समर्थक पहले ही हताश थे. हालांकि मदेरणा ने राष्ट्रीय नेतृत्व के फैसले को स्वीकार कर लिया था. इधर, आलाकमान के सामने चुनौती प्रदेश में असंतोष दूर करने को लेकर भी थी. जिसके चलते ऐन मौके पर विधानसभा अध्यक्ष के पद पर भी मदेरणा का नाम तय किया गया. इन सबके बाद शिवचरण माथुर को राजस्थान प्रशासनिक सुधार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. माथुर को राजी रखने के लिए कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया. ऐसे में सीएम पद से दूर और डिप्टी सीएम का पद ठुकराकर माथुर को कैबिनेट मंत्री के तौर पर ही संतोष करना पड़ा.
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